Vedic Civilization in Hindi PDF - वैदिक सभ्यता और संस्कृति
वैदिक संस्कृति (Vedic Culture)
सिन्धु घाटी की सभ्यता के पतन हो जाने पर भारत के अनेक भागों में विभिन्न संस्कृतियों का उदय हुआ, जिनमें प्रमुख रूप से आर्य सभ्यता थी।
आर्यों की सभ्यता को जानने के पुरातात्विक स्रोत नहीं के बराबर है एवं साहित्यिक स्रोतों में वैदिक साहित्य प्रमुख है।
वेदों से सम्बद्ध होने के कारण ही आर्य सभ्यता को वैदिक संस्कृति (Vedic culture) कहा जाता है।
आर्यों का परिचय
आर्यों के सन्दर्भ में जानने से पूर्व यह अनिवार्य हो जाता है कि हम सबसे पहले आर्य शब्द पर विचार करें।
आर्य शब्द मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ श्रेष्ठ, उच्च कुल में जन्मा, इत्यादि होता है, वशिष्ठ स्मृति में आर्य शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-
"जो रूप-रंग, आकृति-प्रकृति, सभ्यता-शिष्टता, धर्मकर्म, ज्ञान-विज्ञान और आचार-विचार तथा शील स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो उसे आर्य कहते हैं।"
अमरकोष के अनुसार आर्य, सभ्य, सज्जन, साधु, कुलीन, महाकुलीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध विद्वानों के एक वर्ग के अनुसार आर्य शब्द मूलतः 'अरि' शब्द से बना है जिसका अर्थ विदेशी या अजनवी होता है।
यद्यपि 'आर्य' शब्द का यह अर्थ किसी भी तरह से तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
साधारणतया आर्य शब्द जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह भी माना जाता रहा है कि 'आर्य' शब्द जातीयता को नहीं 'भाषायी समूह' की तरफ संकेत करता है।
आर्यों का सबसे पहले उल्लेख बोगोजकोई (पश्चिम एशिया) की शांति सन्धि 1350 ई.पू. में मिलता है।
बोगाजकोई की शांति संधि हित्तदस (Hettites) के राजाओं एवं मितामी साम्राज्य के मध्य हुई, जिसमें मित्र, वरूण एवं इन्द्र देवताओं का आह्वान साक्षियों के रूप में किया गया था।
2000 ई. पू. के आसपास कई जनसमुदाय संस्कृत, लेटिन, ग्रीक, श्लाव इत्यादि भाषाएँ बोलते थे एवं सभी भाषाएं एक-दूसरे से सम्बद्ध थी. इन्हें भोरोपीय भाषा (Indian European language) कहा जाता है।
भोरोपीय भाषा बोलने वालों को भी आर्य कहा गया है।
आर्यों के आदिनिवास सम्बन्धित विभिन्न मत
आर्यों का मूल निवास : यूरोप
फ्लोरेंस के एक विद्वान् फिलिप्पो सेसेटी ने यूरोपीय भाषाओं एवं संस्कृत भाषा में साम्यता के आधार पर आर्यों को यूरोप का मूल निवासी कहा।
विलियम जोन्स, पी. गाइल्स, पेश, नेहरिंग आदि विद्वानों ने भी आयों का आदिनिवास यूरोप बताया।
संस्कृत, लेटिन, अंग्रेजी, जर्मन भाषाओं में साम्यता के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला।
पी. गाइल्स नामक विद्वान का मानना था कि ऋग्वेद में वर्णित पेड़-पौधे, पशु-पक्षी भारत में नहीं पाये जाते।
ऋग्वेद में वर्णित भौगोलिक कारकों से साम्यता रखने वाले पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, कृषि व्यवस्था हंगरी, आस्ट्रिया, बोहेमिया या डैन्यूब नदी की घाटी में विद्यमान थी।
पेटा नस्ल एवं शारीरिक संरचना के आधार पर जर्मनी एवं स्केण्डिनेविया को आर्यों का मूल निवास मानते हैं।
नेहरिंग नामक विद्वान वानस्पतिक समानता के आधार पर दक्षिण रूस को आर्यों का आदिनिवास मानते हैं।
मध्य जर्मनी एवं दक्षिणी रूस के प्रागैतिहासिककालीन अवशेष पश्चिमी बाल्टिक समुद्र तट, यूक्रेन, न्यूजीलैण्ड, रूसी, तुर्किस्तान से साम्यता रखते हैं।
अतः भौगोलिक कारकों के आधार पर आयों का आदि निवास यूरोप को नहीं माना जा सकता।
आर्यो का मूल निवास : मध्य एशिया
ऋग्वेद और इराकी ग्रन्थ जेंद अवेस्ता (Zend Avesta) में अत्यधिक साम्यता होने के कारण प्रो.मैक्समूलर ने आर्यों का आदिनिवास मध्य एशिया बताया है।
प्रो. मैक्समूलर के अनुसार, मध्य एशिया से यूरोप एवं एशिया के विभिन्न भागों में आयों का प्रसार हुआ।
मेयर और रेहर्ड नामक विद्वानों के अनुसार, आर्यों का आदिनिवास पामीर और वैक्ट्रिया था।
मैक्समूलर ने सिद्ध किया कि ईरानी आर्य एवं भारतीय आर्य ईरान और भारत के मध्य किसी एक स्थान पर रहते थे, लेकिन भौगोलिक एवं राजनैतिक कारणों से वे यूरोप और एशिया में बस गए।
आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन था और इसका सर्वाधिक उपयुक्त वातावरण मध्य एशिया में था।
विभिन्न विद्वानों के मतानुसार आर्य पहले गणना 'हिमवर्ष' एवं इसके बाद वर्ष की गणना 'शरद' के आधार पर करने लगे।
आर्य घोड़े, नाव एवं पीपल से परिचित थे एवं आम तथा बरगद से अपरिचित थे।
आर्यों के प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया से प्राप्त हुए हैं, जिसमें वोगजकोई अभिलेख (1400 ई. पू.) में मित्र, वरुण, इन्द्र आदि देवताओं का उल्लेख किया है, जो ऋग्वेद से साम्यता रखता है।
इस आधार पर प्रो. मैक्समूलर भारतीय आर्यों को मध्य एशिया से सम्बद्ध मानते हैं।
आर्यों का मूल निवास : आर्कटिक प्रदेश
प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् एवं स्वतन्त्रता सेनानी लोकमान्य वाल गंगाधर तिलक ने अपनी पुस्तक 'द आर्कटिक होम ऑफ द आर्यन्स' (The Arctic Home of the Aryans) में आर्यों का मूल निवास आर्कटिक प्रदेश या उत्तर ध्रुव क्षेत्र बताया।
बाल गंगाधर तिलक के अनुसार, आर्कटिक क्षेत्र में भयंकर हिमपात होता था।
6 महिने का दिन एवं 6 महिने की रात्रि होती थी।
इनसे वाध्य होकर आर्यों ने इस प्रदेश को छोड़ दिया।
आर्यों का मूल निवास : भारत
ए.सी. दास, गंगानाथ झा, डी. एस. त्रिवेद आदि विद्वान् आर्यों का मूल निवास भारत ही स्वीकार करते हैं।
जबकि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' (Satyartha Prakash) एवं पार्जिटर ने अपनी पुस्तक एनशियेन्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडिशन्स (Ancient Indian Historical traditions) में अभिव्यक्त किया है कि आर्यों का मूल निवास तिब्बत था।
भारत को आर्यों का मूल निवास मानने वाले विचारकों के अनुसार ऋग्वेद में वर्णित भौगोलिक अवस्था एवं प्राकृतिक अवस्था सप्तसैन्धव प्रदेश से साम्यता रखती है।
गंगानाथ झा नामक विद्वान् आर्यों का आदिनिवास ब्रह्मर्षि प्रदेश (पूर्वी राजस्थान, गंगा-यमुना दोआव, पश्चिमीवर्ती प्रदेश) को मानते हैं।
डॉ. ए. सी. दास आयों का आदिनिवास सप्तसैन्धव प्रदेश मानते हैं।
जबकि प्रो. मेकडोनाल्ड एवं प्रो. ग्रीब्ज आर्यों का आदिनिवास आस्ट्रो-हंगरी प्रदेश मानते हैं।
आधुनिक विद्वानों का मानना है कि आर्यों का मूल निवास पालेण्ड से मध्य एशिया तक फैला हुआ था।
संस्कृत, लेटिन, ग्रीक, जर्मनी, रोमेनक, स्वीडिश, श्लाव, रूमानियाई भाषाओं को आर्य भाषा कहा जाता है।
दक्षिण भारत के विद्वान चैकलिंगम पिल्ले का मत है कि आर्यों का आदिनिवास अफ्रीका से मलाया तक हिन्द महासागर की जगह पूर्व काल का गौडवाना प्रदेश था।
गीडवाना की सुरन जाति भारत में आर्य नाम से विख्यात हुई।
आर्यों का मूल निवास : हिमालय
विभिन्न विद्वानों, भाषाशास्त्रियों, इतिहासकारों ने अपने अध्ययन एवं अनुसंधान के आधार पर आर्यों के मूल निवास से सम्बन्धित विभिन्न मतों को प्रस्तुत किया।
सभी विद्वज्जनों के मतों में पर्याप्त विभेद दृष्टिगोचर होता है।
एक ऐसा सार्वभौमिक मत आज तक सामने नहीं आया, जो निर्विवाद आर्यों के आदिनिवास की पुष्टि कर सके।
सिर्फ मत-मतान्तर प्रस्तुत कर देने भर से तो आयों के आदिनिवास की समस्या हल नहीं हो जाती।
चूँकि लक्षण और प्रमाण से वस्तुसिद्धि हो जाती है, तथापि विद्वानों की आर्य आदिनिवास सम्बन्धित वस्तुसिद्धि लक्षण और प्रमाण की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
सबसे पूर्व यदि 'आर्य' शब्द के अर्थ की चर्चा की जाए, तो विद्वानों की लम्बी श्रृंखला आर्य का अर्थ 'अजनवी' या 'विदेशी' वैदिक संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है।
लेकिन यह तर्कसंगत कदापि प्रतीत नहीं होता, क्योंकि आर्य का अर्थ यदि विदेशी होता, तो ऋग्वेद में 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' अर्थात् 'विश्व को आर्य वना दो' की अभिव्यक्ति नहीं होती।
वस्तुतः अमरसिंह द्वारा रचित अमरकोष के अनुसार, "आर्य, सभ्य, सज्जन, साधु, कुलीन, महाकुलीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
" वशिष्ठ स्मृति के अनुसार, "जो रूप-रंग, आकृति-प्रकृति, सभ्यता-शिष्टता, धर्म-कर्म, ज्ञान-विज्ञान और आचार-विचार तथा शील-स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो उसे आर्य कहते हैं."
आर्यों की यही परिभाषा एवं अर्थ तर्कसंगत एवं शास्त्रसम्मत है।
आयों के आदिनिवास के सम्बन्ध में मतनिर्धारकों में प्रो. मैक्समूलर का नाम सर्वोपरि लिया जाता है।
प्रो. मैक्समूलर 'मध्य एशिया' आयों का आदिनिवास मानते हैं और उनकी यह धारणा भाषाजन्य-साम्यता के कारण है।
लेकिन 40 वर्ष वाद प्रो. मैक्समूलर स्वयं ही इस मत के प्रति उपेक्षित भाव रखने लगते हैं और 'मध्य एशिया' में से 'मध्य' निकालकर 'एशिया' को आदिनिवास मानते हुए अपनी कृति-गुडवर्डस (अगस्त 1885) में लिखते हैं -
"जिस प्रकार 40 वर्ष पूर्व मैंने कहा था उसी तरह अब भी कहता है कि आयों की जन्मभूमि कहीं एशिया में हैं."
"I should still say as I said forty years ago some where is Asia & no more."
(Good words, Aug, 1887)
- Prof. Mex Muller
वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्य से आर्यसभ्यता एवं संस्कृति की पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।वैदिक साहित्य में चार वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदाङ्ग, स्मृति, पुराण, षड्दर्शन, उपवेद एवं महाकाव्य आते हैं।
ऋग्वेद पूर्ववैदिककालीन रचना है।
ऋग्वेद की रचना 1500-1000 ई. पू. के मध्य हुई।
ऋग्वेद की रचना सप्तसैन्धव प्रदेश में हुई।
उत्तर वैदिक साहित्य का रचना काल 1000-600 ई. पू. माना जाता है।
कुरू पांचाल क्षेत्र में उत्तर वैदिक साहित्य की रचना हुई।
आर्यों के प्रसार, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिवेश की सम्पूर्ण जानकारी वैदिक साहित्य से प्राप्त होती है।
आर्यों का भौगोलिक विस्तार
ऋग्वेद के अनुसार आर्य भारत में सप्तसैन्धव प्रदेश में सबसे पूर्व बसे एवं वहीं से उनका प्रसार हुआ।ऋग्वेद में सप्तसैन्धव प्रदेश की प्रमुख सात नदियों का उल्लेख प्रमुख रूप से किया गया है।
अफगानिस्तान की निम्नलिखित चार प्रमुख नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है-
1. गोमति (आधुनिक गोमल)
2. क्रुमू (आधुनिक कुर्रम)
3. सुवास्तु (आधुनिक स्वात)
4. कुभा (आधुनिक काबुल)
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित नदियों का वर्णन भी ऋग्वेद में प्राप्त होता है-
1. सिन्धु
2. सरस्वती
3. दृषद्वती (घग्घर)
4. शतुद्रि (सतलज)
5. विपासा (व्यास)
6. परूष्णी (रावी)
7. असिक्नी (चेनाव)
8. वितस्ता (झेलम)
पंजाब की पाँच नदियों एवं राजस्थान की दो नदियों सरस्वती एवं दृषद्वती (घग्घर) सात नदियों वाले क्षेत्र को ऋग्वेद में 'सप्तसैन्धव' प्रदेश कहा है।
ऋग्वेद में वर्णित नदियों के विस्तार के आधार पर विद्वान आर्यों का प्रसार अफगानिस्तान से सिन्धु प्रदेश तक मानते हैं।
जिसके अन्तर्गत गोमल मैदान, दक्षिणी अफगानिस्तान, दक्षिणी जम्मू व कश्मीर, सम्पूर्ण पंजाब एवं हरियाणा आते हैं।
ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों की रचना अफगानिस्तान से सिन्धु प्रदेश के मध्य हुई।
सरस्वती और दृषद्वती के मध्य भाग को ब्रह्मावर्त कहा गया है।
गंगा एवं यमुना का भी एक-दो बार ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है।
विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद में वर्णित गंगानदी आर्यों की पूर्वी सीमा थी।
थानेश्वर, पूर्वी राजस्थान, मथुरा, गंगा एवं यमुना को ऋग्वेद में 'ब्रह्मर्षि प्रदेश' कहा है।
विद्वान् इस प्रदेश को आयों का दूसरा प्रसार केन्द्र मानते हैं।
दशराज्ञ युद्ध में वर्णित जनजातियों का निवास स्थान गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र माना गया है।
ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार भारतवर्ष के पाँच खण्ड थे--
1. ध्रुव मध्य प्रतीची देश (मध्यदेश)
2. प्राचीदिश (पूर्वी भाग)
3. दक्षिणदिश (दक्षिणी भाग)
4. प्रतीचीदिश (पश्चिमी भाग)
5. उदीची दिश (उत्तरी भाग)
उत्तर-वैदिकसाहित्य के अनुसार पंजाब से बाहर भी आर्यों का प्रसार हो चुका था।
'शतपथ ब्राह्मणम्' के अनुसार आर्यों से निम्नलिखित क्षेत्र भी सम्बद्ध हो चुके थे -
1. कांपिल्य
2. कुरुक्षेत्र
3. कौशाम्बी
4. हस्तिनापुर
उत्तर-वैदिकसाहित्य में आर्यों के प्रसार क्षेत्र में निम्नलिखित स्थलों का भी वर्णन मिलता है -
1. अरब सागर
2. हिन्द महासागर
3. हिमालय
4. विन्ध्याचल
5. गंगा
6. गण्डक
7. यमुना
8. मारू रेगिस्तान
9. नैमिषारण्य रेगिस्तान
विद्वानों के अनुसार उत्तर वैदिक आर्यों का प्रमुख केन्द्र कुरुक्षेत्र था।
उत्तर-वैदिककालीन आर्यों का केन्द्र दक्षिणी सीमा पर स्थित 'विन्ध्य प्रदेश' था।
आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहा जाता है।
वैदिक सभ्यता को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है -
1. ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक सभ्यता (1500-1000 ई.पू.)2. उत्तर वैदिक सभ्यता (1000-600 ई.पू.)
ऋग्वैदिक या पूर्ववैदिक सभ्यता एवं संस्कृति (Rigvedic or Prevedic Civilization & Culture)
ऋग्वैदिक या पूर्ववैदिक काल की सभ्यता एवं संस्कृति की सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करने वाला ग्रन्थ ऋग्वेद है।ऋग्वेद में 10 मण्डल एवं 1028 ऋचाएँ हैं।
ऋग्वेद में अग्नि, इन्द्र, उषा, धीष, पुरुष आदि प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय शक्ति मानकर उनकी स्तुति की गई है।
आर्यों का राजनीतिक जीवन
भारत में सप्तसैन्धव प्रदेश में आकर बसने के उपरान्त आयों को दो प्रकार के संघर्षों का सामना करना पड़ा -1. आर्यों के विभिन्न कबीलों से संघर्ष
2. अनार्यों से युद्ध
यहाँ पर आगमन के समय आर्य निम्नलिखित कबीलों में विभक्त थे -
1. भरत (ब्रह्मावर्त क्षेत्र में)
2. मत्स्य (भरतपुर में)
3. अनुस तथा द्रुह्यु (पंजाब में)
4. तुर्वसु (दक्षिण-पूर्व में)
5. यदु (पश्चिम में)
6. पुरू (सरस्वती नदी के आसपास)
कबीलों में आपसी संघर्ष अधिक भूमि, पशुओं एवं चरागाहों के लिए होता था।
ऋग्वेद में युद्ध के अर्थ में गविष्टि, गोषु, गद्य एवं गम्य शब्दों का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वेद में कबीले के अर्थ को प्रकट करने वाला शब्द विश् है, जिसका 170 बार प्रयोग हुआ है।
ऋग्वेद में जन् शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है।
ऋग्वेद में कबीलाई युद्धों में प्रमुख युद्ध 'दशराज्ञ युद्ध' (दस राजाओं के युद्ध) का वर्णन मिलता हैं।
ऋग्वेद में वर्णित तथ्यों के अनुसार दशराज्ञ युद्ध में लगभग तीस राजाओं ने भाग लिया था।
दशराज्ञ युद्ध भरत कवीले के राजा सुदास के नेतृत्व में परुष्णी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया था।
इस युद्ध में सुदास द्वारा अपमानित करने पर विश्वामित्र ने पंचजन-अणु, द्रुघु, यदु, तुवर्स और पुरू के साथ अन्य लोगों को संगठित कर यह युद्ध किया था।
दशराज्ञ युद्ध में सुदास की विजय हुई थी।
ऋग्वैदिककाल में जन से तात्पर्य कबीला था, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में सर्वाधिक मिलता है।
ऋग्वेद में अनायों के लिए पणि, दास, दस्यु के नाम का उल्लेख किया गया है।
ऋग्वेद में अनायों की निम्न जातियों का उल्लेख हुआ है-
1. अज
2. यक्ष
3. किकट
4. पिशाच
5. शिश्रु
'पणि' आर्यों को अपमानित कर उनके पशु/मवेशी चुरा लेते थे, जिसके कारण आर्यों को पणियों से संघर्ष करना पड़ता था।
पणि, दास, दस्युओं को भारत का मूल निवासी ही माना गया है।
आर्यों का राजनीतिक संगठन
आर्यों में रक्त-सम्बन्धों के आधार पर कुटुम्ब, कुल या परिवार संगठित होते थे।आर्यों में सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई कुटुम्ब होता था।
परिवार, कुल या कुटुम्ब का मुखिया (प्रधान) 'कुलप' या 'कुलपति' कहलाता था।
अनेक परिवारों के संगठन से ग्राम का निर्माण होता था जिसका मुखिया 'ग्रामणी' कहलाता था।
अनेक ग्रामों को मिलाकर एक विश् का निर्माण होता था, जिसका प्रधान 'विश्पति' कहलाता है।
अनेक विशों का समूह जन या कवीला होता था जिसका प्रधान राजा या गोप होता था।
वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में जनपद, राज्य, राष्ट्र की अवधारणा स्थापित हुई।
ऋग्वैदिक काल में शासन का प्रमुख राजन (गोप, गोपति, जनराजन, विशपति) होता था।
ऋग्वैदिककाल में शासन का प्रमुख राजन या राजा प्रजा का नेतृत्व करता था, प्रजा की सुरक्षा करता था।
उसके बदले में प्रजा राजा की आज्ञा का पालन करती थी।
ऋग्वैदिक काल में राजा भगवान् या अवतार नहीं होता था।
केवल एक योग्य व्यक्ति माना जाता था।
उसे स्वच्छाचारिता का कोई अधिकार नहीं था।
राजा की शक्तियाँ सभा (उच्च सदन) एवं जनसभा (जिसे समिति कहते थे) लोगों की इच्छा के अनुसार होती थी।
राजन का पद कई स्थिति में वंशानुगत ही होता था।
राजा की प्रशासनिक सहयोगिता के लिए पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामणी होते थे।
ऋग्वैदिककालीन राजा की कोई सेना या आमदनी का स्रोत नहीं होता था।
वैदिककाल में अनेक जनतान्त्रिक संस्थाएं कार्यरत् थीं।
तत्कालीन जन्तान्त्रिक संस्थाओं में प्रमुख निम्न थीं-
1. सभा
2. समिति
3. विदय
4. गण
सभा सम्पूर्ण प्रजा की जनसभा थी।
यह होमरकालीन गुरुजन प्रणाली से मिलती-जुलती थी।
सभा में स्त्रियाँ भी भाग लेती थीं. सभा का प्रमुख कार्य 'न्याय' करना था।
समिति राजा का निर्वाचन करती थी।
धार्मिक एवं सैनिकों से सम्बन्धित मामलों के लिए 'विदथ' होता था।
सभा, समिति, गण एवं विदथ के साथ राजा का स्नेहिल सम्बन्ध होना अत्यावश्यक था।
युद्धकाल में राजा द्वारा गठित सेना का संचालन वर्त्त एवं गण करते थे।
युद्ध में नेतृत्व करने वाला अधिकारी 'ब्रजपति' कहलाता था।
व्रजपति ही 'ग्रामणी' का नेतृत्व भी करता था।
ऋग्वैदिक काल की न्यायिक व्यवस्था अद्वितीय थी, राजा ही न्याय किया करता था।
ऋग्वेदकालीन समाज
ऋग्वेदकालीन समाज 'पितृसत्तात्मक' था।समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार था।
उसका मुखिया कुलपति होता था।
कुलपति का परिवार पर नियन्त्रण एवं प्रभाव रहता था।
ऋग्वेदकालीन परिवार संयुक्त होते थे।
कई पीढ़ियों तक परिवार के बन्धु-बान्धव साथ रहते थे।
उन्हें 'नप्तृ' कहा जाता था. ऋग्वेद में सौवीर (पुत्र) की कामना का उल्लेख मिलता है।
माता को गृहस्वामिनी माना जाता था एवं उसे पूर्ण अधिकार एवं सम्मान प्राप्त था।
विवाह के लिए स्त्रियों को पिता की अनुमति लेना आवश्यक था।
वैदिककालीन प्रमुख विदुषी महिलाएं निम्नलिखित हैं-
1. विश्वतारा
2. विश्पला
3. घोषा
स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त नहीं होता था एवं उन्हें पुरुषों के संरक्षण में रहना अत्यावश्यक था।
ऋग्वैदिक संस्कृति में सती प्रथा का प्रचलन नहीं था।
तत्कालीन संस्कृति में 'नियोग' की व्यवस्था प्रचलित थी।
वैदिककालीन समाज में विवाह एकात्मक होते थे।
राजकुमारों के लिए बहुविवाह का भी प्रचलन था।
बाल-विवाह प्रचलित नहीं था।
ऋग्वैदिक संस्कृति
ऋग्वैदिक संस्कृति में वधू मूल्य एवं दहेज दोनों प्रथाएँ प्रचलित थी।स्त्रियों/कन्याओं को शिक्षा, कवीलों की सभाओं एवं समितियों तथा राजनीति में भाग लेने का अधिकार था।
आठों प्रकार के विवाहों का प्रचलन था, तथापि स्वयंवर प्रथा अस्तित्व में नहीं थी।
आर्यों का प्रारम्भिक वर्गीकरण वर्ण एवं कर्म के आधार पर निष्पादित हुआ था।
इस काल में प्रमुख तीन वर्ग थे-
1. ब्राह्मण
2. क्षत्रिय
3. वैश्य
वैदिककाल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय को 'राजन्य' कहा जाता था।
सामान्य लोग वैश्य वर्ण के अन्तर्गत आते थे।
अनार्यों को आयों में समाहित कर एक नये वर्ण का उदय हो चुका था जिसे 'शूद्र' कहा जाता था।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अनुसार वर्षों की उत्पत्ति निम्न तरीके से हुई थी -
1. ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति
2. ब्रह्मा की वाहु से क्षत्रिय की उत्पत्ति
3. ब्रह्मा की जंघा से वैश्य की उत्पत्ति
4. ब्रह्मा के पैर से शूद्र की उत्पत्ति
ऋग्वेद में दास एवं दस्युओं के साथ आर्यों के संघर्ष का उल्लेख प्राप्त होता है।
विद्वान इतिहासकारों के अनुसार दास या दस्यु भारत के निवासी थे।
वैदिक काल में धनी वर्ग दास रखते थे।
आर्थिक उत्पादनों में दासों से कोई सम्बन्ध नहीं था।
आर्यों का वर्ण गौर था एवं वैदिककालीन मूलनिवासी काले रंग के थे।
वैदिककालीन कवीलाई समाज तीन भागों में विभक्त था-
1. योद्धा
2. पुरोहित
3. प्रजा
आर्यों का भोजन अनाज, दूध, फल एवं माँस होता था।
सुरा और सोमरस का प्रयोग भी आर्यों द्वारा किया जाता था।
वैदिककालीन लोग कमर के नीचे वास एवं कमर के ऊपर अधिवास वस्त्रों का प्रयोग स्त्री एवं पुरुष दोनों करते थे।
स्त्रियाँ कंचुकी (नीवी) पहनती थीं।
इस काल में सूती एवं ऊनी वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था।
रंगने, कशीदाकारी की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी।
बाल संवारने की विभिन्न कलाओं का विकास हो चुका था, आर्य पुरुष स्त्रियाँ नुपुर, हार, कुण्डल आदि आभूषणों का प्रयोग करते थे।
रथ दौड़, नृत्यगान Read more ......
उत्तर-वैदिकयुगीन सभ्यता एवं संस्कृति
उत्तर-वैदिक काल को 'परिवर्तनशील काल' (Transitional Phase) कहा जाता है।इस काल के साहित्यिक स्रोतों में तीनों वेद-सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थ एवं उपनिषद प्रमुख हैं।
पुरातात्त्विक साक्ष्यों में उत्तरवैदिककाल में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड एवं लोहे के प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
उत्तर-वैदिककाल में स्थायी ग्राम व्यवस्था का आविर्भाव एवं कवीलाई तत्त्वों का पतन होने लगा था।
उत्तर-वैदिककाल में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था।
उत्तर-वैदिककालीन साहित्य 1000-600 ई.पू. के मध्य गंगा के ऊपरी मैदान में लिखी गई।
जिसके फलस्वरूप उत्तर-वैदिकयुगीन संस्कृति का काल 1000-600 ई. पू. के मध्य माना जाता है।
उत्तर-वैदिककालीन साहित्य के अनुसार इस काल के आर्य पंजाब से चलकर गंगा और यमना के मध्य सारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैल गए थे।
इस काल के उत्खनित स्थलों में हस्तिनापुर, कौशाम्बी एवं अहिच्छत्र प्रमुख थे।
उत्खनन और अनुसंधानों के फलस्वरूप उत्तर-वैदिककालीन संस्कृति के 700 स्थल प्रकाश में आये हैं, जहाँ सबसे पहले वस्तियाँ स्थापित हुई थी।
इन बस्तियों को चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grayware) या पी. जी. डब्ल्यू स्थल कहते हैं।
भारत और पुरू नामक कबीले मिलकर उत्तरवैदिककाल में कुरू नाम से जाने गये, उन्हीं के नाम पर 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा।
उत्तर-वैदिककालीन राजनीति एवं प्रशासन
साहित्यिक ग्रन्थों में आर्यों के मध्यदेश एवं कुरुक्षेत्र तक प्रसार के साक्ष्य मिलते हैं।'शतपथ ब्राह्मणम्' के अनुसार आर्यों का प्रसार सदानीरा या गण्डक नदी तक हो चुका था।
दक्षिणी क्षेत्र में विदर्भ तक आर्य प्रसारित हो चुके थे।
उत्खनन से निम्नलिखित स्थलों पर उत्तर-वैदिककालीन लोहे के हथियार (वाणाग्र, बरष्ठी, शीष) प्राप्त हुए हैं -
1. हस्तिनापुर
2. आलमगीरपुर
3. नोह
4. अंतरजीखेड़ा
5. बटेसर
उत्तर-वैदिककाल में कवीलों का स्थान क्षेत्रीय राज्यों ने ले लिया था।
वैदिककालीन तुर्वश एवं क्रिवी ने मिलकर पांचाल कवीले को जन्म दिया।
करु एवं पांचालों ने मिलकर हस्तिनापुर (मेरठ) में अपनी राजधानी स्थापित की।
950 ई. पू. कुरु कबीलों के दो गुट-कौरव एवं पांडवों में भरत-युद्ध हुआ, जिसमें कुरु-कवीले का विनाश हुआ।
महाभारत नामक महाकाव्य में इसी युद्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है।
हस्तिनापुर वाढ़ से नष्ट हो गया एवं वहाँ के शेष कुरु कवीले के लोग कौशाम्बी में बस गये।
दार्शनिक एवं विद्वानों के कारण प्रसिद्ध 'कांपिल्य' पांचालों की राजधानी थी।
राजा प्रवाहक जावालि पांचालों का प्रसिद्ध दार्शनिक था।
विदेह की राजधानी 'मिथिला' के राजा जनक थे।
उत्तर-वैदिककालीन सामाजिक व्यवस्था
उत्तर-वैदिककालीन समाज में कर्म से अधिक वर्ण को महत्त्व दिया जाने लगा थाब्राह्मण एवं क्षत्रिय, समाज के सर्वश्रेष्ठ वर्ग माने जाते थे.
ये दोनों उत्पादन के नियन्त्रक थे.
वैश्य और शूद्र इस युग के उत्पादक थे, जिन्हें किसी भी तरह की सुविधा प्राप्त नहीं थी.
सभी चारों वणों की दिनचर्या, खान-पान, आचार-विचार एवं विवाह सम्बन्धी नियम अलग-अलग ये ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य उपनयन संस्कार के अधिकारी थे, लेकिन शूद्रों को उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं था.
शूद्रों को अछूत एवं अस्पृश्य माना जाता था. उनके छूने को निदंदनीय माना जाता था।
उत्तर-वैदिककालीन धार्मिक स्थिति
उत्तर-वैदिक काल का धार्मिक जीवन रूढ़िवादी, आडम्बरपूर्ण एवं कर्मकाण्ड प्रधान बन चुका था.धार्मिक जीवन के सर्वेसर्वा पुरोहित बन गए थे.
ऋग्वैदिककालीन देवता इन्द्र, वरुण, मित्र, अग्नि का स्थान गौण हो गया था एवं शिव, विष्णु, ब्रह्मा इस काल के श्रेष्ठ देवता बन गये थे.
उत्तर-वैदिककाल में यक्ष, गन्धर्व, दिग्पाल देवताओं के सहायक के रूप में सामने आये थे.
ऋग्वैदिककालीन देवियों उषा एवं अदिति का स्थान अप्सरा एवं यक्षिणियों ने ले लिया था.
उत्तर-वैदिककाल में अवतारवाद की धारणा प्रबल हुई एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिमूर्ति स्वरूप में प्रमुख देवता Read more....
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