जांभोजी
☞ जाम्भोजी विश्नोई संप्रदाय के संस्थापक थे। इनका जन्म विक्रम संवत 1508 (1451 ई.) में भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को नागौर जिले के पीपासर गांव में पवार लोहटजी और हांसा देवी के यहां हुआ था।
☞ लगभग 20 वर्षों तक पशु चराने का कार्य किया और उसके बाद सन्यास ग्रहण किया।
☞ वि.सं. 1542 में इन्होंने कार्तिक कृष्णा अष्टमी पर सम्भराथल नामक स्थान पर प्रथम पीठ स्थापित करके बिश्नोई समाज का प्रवर्तन किया। शासक वर्ग व विशिष्ट वर्ग दोनों इनसे प्रभावित थे। जंभोजी के सिद्धांत लोगों के दैनिक जीवन से जुड़े हुए थे। जंभोजी ने अपने अनुयायियों को 29 नियमों के पालन करने पर जोर दिया। बिश्नोई नाम भी (बीस नौ) अंकों में (20-9) के आधार पर दिया।
Rajsthan ke Smaj Sudharak |
☞ जंबोजी शांतिप्रिय, साग्राही, समन्वयकारी, उदार चिंतक मानव धर्म के पोषक, पर्यावरण के संरक्षक व हिंदू मुसलमानों में एकता व सामंजस्य के समर्थक थे।
☞ अकाल के समय जंभोजी ने सामान्य जन की सहायता की। उन्होंने बताया कि ईश्वर प्राप्ति के लिए सन्यास की आवश्यकता नहीं है।
☞ समराथल के पास मुकाम नामक स्थान पर वर्ष में दो बार जंभोजी का मेला लगता है। जंभोजी ने चारित्रिक पवित्रता और मूलभूत मानवीय गुणों पर बल दिया। उनके वचनों का सामूहिक नाम सबदवाणी है। जंभोजी की शिक्षाओं के कारण ही बिश्नोई समाज निरंतर पर्यावरण की रक्षा, पेड़ों की रक्षा एवं जीवहत्या के विरोध में प्रयासरत है।
संत पीपा जी
☞ कालीसिंध नदी पर बना प्राचीन गागरोन दुर्ग पीपा जी का जन्म स्थल रहा है। इनका जन्म वि.सं. 1417 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को खींची राजवंश परिवार में हुआ था। वे राज्य के वीर साहसी व प्रजापालक शासक थे।
☞ शासक रहते हुए उन्होंने दिल्ली सल्तनत के सुल्तान फिरोज तुगलक से संघर्ष करके विजय प्राप्त की लेकिन युद्ध जनित उन्माद, हत्या, जमीन से जल तथा रक्तपात को देखा तो उन्होंने सन्यासी होने का निर्णय ले लिया।
☞ पीपा जी के पिता पूजा-पाठ व भक्ति भावना में अधिक विश्वास रखते थे। पीपाजी की प्रजा भी नित्य आराधना करती थी।
☞ देवी कृपया से राज्य में कभी भी आकाल व महामारी का प्रकोप नहीं हुआ। किसी शत्रु ने आक्रमण भी किया तो प्रास्त हुआ। राजगद्दी त्याग करने के बाद वे रामानंद के शिष्य बन गए। रामानंद के 12 प्रमुख शिष्यों में पीपाजी भी एक है।
☞ पीपाजी देश के महान समाज सुधारकों की श्रेणी में आते हैं। उनका जीवन व चरित्र महान था। संत पीपा जी ने राजस्थान में भक्ति एवं समाज सुधारक का अलख जगाया।
☞ पीपा जी ने अपने विचारों और कृतित्व से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। पीपाजी निर्गुण विचारधारा के संत कवि एवं समाज सुधारक थे।
☞ पिताजी ने भारत में चली आ रही चतुर वर्ण व्यवस्था में नवीन वर्ग, श्रमिक वर्ग सृजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उनके द्वारा सृजित यह नवीन वर्ग ऐसा था जो हाथों से परिश्रम करता और मुख से ब्रह्म का उच्चारण करता था।
☞ समाज सुधार की दृष्टि से संत पीपाजी ने बाह्य आडंबरों, कर्मकांडों और रूढ़ियों की कटु आलोचना की तथा बताया कि ईश्वर निर्गुण व निराकार है, वह सर्वत्र व्याप्त है, जीवात्मा के रूप में वह प्रत्येक जीव में व्याप्त है। मानव मन में ही सारी सिद्धियां व वस्तुएं व्याप्त हैं। ईश्वर या परम ब्रह्म की पहचान मन में अनुभूति से है।
☞ पीपाजी सच्चे अर्थों में लोकमंगल की समन्वयककारी पद्धति के पोषक थे। उन्होंने संसार त्याग कर भक्ति करते हुए भी कभी भी पलायन करने का संदेश नहीं दिया। उन्होंने ऐसे संतों की भी खुली आलोचना की जो केवल वेशभूषा से संत थे, आचरण से नहीं।
☞ ऊंच-नीच की भावना, पर्दा प्रथा का कठोर विरोध उत्तरी भारत में पहली बार किया। इनका प्रत्यक्ष उदाहरण उन्होंने स्वयं से दिया। अपनी पत्नी सीता सर्जरी को आजीवन बिना पर्दे ही रखा जबकि राजपूतों में पर्दा प्रथा का विशेष प्रचलन था। गुरु भक्ति की भावना पीपाजी में कूट-कूट कर भरी हुई थी। उनको जानकारी थी कि गुरु के बिना माया से मुक्ति संभव नहीं है।
जसनाथ जी
☞ राजस्थान के समाज सुधारकों में जसनाथ जी का नाम अत्यधिक महत्वपूर्ण है। वि.सं. 1539 में कतरियासर (बीकानेर) में जसनाथ जी का जन्म हुआ था। मात्र 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया एवं गोरख मालियों में कठोर तप किया।
☞ इन्होंने वि.सं. 1563 में समाधि ली। भक्ति कालीन अन्य संतों की भांति जसनाथ जी ने भी समाज में प्रचलित रूढ़ियों और प्रखंडों का विरोध किया। इन्होंने निर्गुण और निरंकार भक्ति पर बल दिया।
जातिवाद का खंडन किया, संयम एवं सदाचार पर विशेष बल दिया। जसनाथ ने भी ईश्वर की प्राप्ति के लिए गुरु का होना आवश्यक बताया।
दादू दयाल जी
☞ दादूदयाल मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे। इनका जन्म वीं.सं. 1601 में चैत्र शुक्ला अष्टमी को अहमदाबाद में हुआ।
☞ सन्यास के बाद आप राजस्थान में आबू पर्वत को अपनी तपोस्थली बनाया। यहां से आप सांभर चले गए फतेहपुर सीकरी में आपने 50 दिनों तक अकबर व उसके सभासदों को उपदेश दिया।
इससे प्रभावित होकर अकबर ने गौ हत्या बंद कर दी। अंतिम दिनों में आप नारायणा में रहने लगे, वि.सं. 1660 में वहीं पर आप ब्राह्मलीन हुए।
☞ इनके 152 शिष्य थे इनमें से गरीब दास, रज्जब, सुंदरदास, जनगोपाल, जगजीवन दास, माधव दास आदि प्रमुख थे। जिन्होंने अपने गुरु की शिक्षाएं जन-जन तक फैलाई, इनकी शिक्षाएं "दादू वाणी" में पद रूप में संग्रहित है।
☞ दादू दयाल ने बहुत ही सरल भाषा में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है। उनके अनुसार ब्रह्म से ओंकार की उत्पत्ति और ओंकार से पांच तत्वों की उत्पत्ति हुई है। माया के कारण ही आत्मा और परमात्मा के मध्य भेद होता है। उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु को अत्यंत आवश्यक बताया। अच्छी संगति, ईश्वर का स्मरण, अहंकार का त्याग, संयम एवं निर्भीक उपासना ही सच्चे साधन हैं।
☞ दादू ने विभिन्न प्रकार के सामाजिक आडम्बर, पाखंड एवं सामाजिक भेदभाव का खंडन किया। जीवन में सादगी सफलता और निश्छलता पर विशेष बल दिया।
सरल भाषा एवं विचारों के आधार पर दादू को राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है।संत रामचरण जी
☞ रामचरण महाराज रामस्नेही संप्रदाय के संस्थापक थे। आप स्वामी रामचरण जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए।
☞ इनका मूल नाम रामकिशन विजयवर्गीय था। इनका जन्म माघ शुक्ल 14, वि.सं. 1776 [14 फरवरी 1720 ई.] में टोंक जिले में सोडा गांव में हुआ था।
☞ निर्वाण वैशाख कृष्णा 5 वि.सं. सौ 1855 [1799 ई.] में शाहपुरा [भीलवाड़ा] में हुआ।
☞ यह रामद्धारा शाहपुरा के संस्थापक आचार्य थे। इनके बचपन का नाम रामकिशन था एवं पिताजी का नाम वक्तराम विजयवर्गीय एवं माता का नाम देवहूति देवी था। इनका विवाह गुलाम कवर के साथ हुआ। शादी के बाद आमेर के जयसिंह द्धितीय ने जयपुर मालपुरा के दीवान पद पर नियुक्त किया।
☞ पिताजी की मृत्यु के बाद भौतिकवाद के प्रति रामचरण जी की रुचि कम होने लगी। कुछ समय बाद ही उन्होंने सन्यास ज्ञान कर लिया और शाहपुरा [भीलवाड़ा] के निकट दांतड़ा गांव में गुरु कृपाराम जी के संपर्क में आए और उनके शिष्य बन गए।
☞ भीलवाड़ा में मियां चंद जी की पहाड़ी पर उन्होंने तपस्या की। रामचरण जी ने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया। लेकिन सगुण भी उन्होंने विरोध नहीं किया।
☞ लोगों को राम-राम शब्द बोलने के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी ने विशिष्ट अद्वैतवाद भक्ति परंपरा का अनुसरण किया।
☞ श्री राम की स्तुति का प्रचार किया राम की। स्तुति के फलस्वरूप इनके द्वारा स्थापित संप्रदाय रामसनेही के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
☞ समाज में प्रचलित दिखावे और आडंबरो का रामचरण जी ने विरोध किया। उन्होंने मूर्ति पूजा की अंधभक्ति का समर्थन नहीं किया।
☞ उन्होंने व्यक्ति की समानता का समर्थन किया एवं जातिगत भेदभाव का विरोध किया। रामचरण जी महाराज ने बताया कि व्यक्ति को ईश्वर की खोज में अलग-अलग स्थानों पर जाने की बजाय अपने आप को तलाशना चाहिए। स्वामी जी की रचनाओं का संकलन "वाणी जी" ने नाम से संगृहीत है। इसका प्रकाशन शाहपुरा [भीलवाड़ा] से स्वामी रामचरण जी महाराज की "अभिनव वाणी" के नाम से प्रसिद्ध है।
☞ वि.सं. 1817 में रामचरण जी के शिष्य रामचंद्र जी नेइनके सिद्धांतों के प्रसार की दृष्टि से विशेष प्रयास किया। पूजा स्थलों के रूप में विभिन्न स्थानों पर रामद्वारों का निर्माण किया गया।
☞ शाहपुरा के प्रसिद्ध रामद्वारा का निर्माण शाहपुरा के शासक महाराजा अमर सिंह व उनके भाइयों के सहयोग से किया गया। अन्य स्थानों में भीलवाड़ा व सोडा में भी रामद्वारे हैं। राम द्वारों को रामनिवास धाम या रामनिवास बैकुण्ठधाम भी कहते हैं।
☞ राजस्थान में शाहपुरा रामस्नेही संप्रदाय का प्रमुख केंद्र है। इस संप्रदाय का यहां पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय है. रामचरण जी महाराज ने कहा कि बिना किसी भेदभाव से कोई भी व्यक्ति रामद्वारा आकर ईश्वर की पूजा कर सकता है। रामसनेही शब्द का तात्पर्य ही ईश्वर[राम] से स्नेह करना है
☞ 18वीं शताब्दी एक प्रकार से राजस्थान के राजनैतिक सामाजिक एवं धार्मिक जीवन के पतन का युग था। ऐसे वातावरण को शुद्ध करने का तात्पर्य रामस्नेही संप्रदाय ने किया।
☞ इस संप्रदाय ने संतों से राम भक्ति की निर्गुण शाखा का व्यापक प्रचार किया। सभी संतो ने जाति व्यवस्था का खंडन किया। गुरु का होना अनिवार्य बताया, धर्म के बाह्य आडम्बरों का खंडन किया। समाज में प्रचलित सामाजिक बुराइयों का जबरदस्त विरोध किया। समन्वय की भावना अधिक होने के कारण राजस्थान एवं आसपास के राज्यों में यह संप्रदायिक काफी लोकप्रिय हुए।
☞ इस संप्रदाय ने संतों से राम भक्ति की निर्गुण शाखा का व्यापक प्रचार किया। सभी संतो ने जाति व्यवस्था का खंडन किया। गुरु का होना अनिवार्य बताया, धर्म के बाह्य आडम्बरों का खंडन किया। समाज में प्रचलित सामाजिक बुराइयों का जबरदस्त विरोध किया। समन्वय की भावना अधिक होने के कारण राजस्थान एवं आसपास के राज्यों में यह संप्रदायिक काफी लोकप्रिय हुए।
अचार्य भिक्षु
☞ जैन परंपरा में अचार्य भिक्षु का उदय एक नए आलोक की दृष्टि से है। इस महान संत का जन्म मारवाड़ के कंटालिया ग्राम में आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी विक्रम संवत 1783 [2 जुलाई 1726] में हुआ था।
लगभग 25 वर्ष की आयु में मगसिर कृष्णा-12 विक्रम संवत 1808 में वह जैन अचार्य रघुनाथ जी के संप्रदाय में मुनि हुए। लगभग 8 वर्ष तक वह अपने गुरु के सानिध्य में रहे। उस समय आचार की शिथिलता का बोलबाला था।
☞ अनेक जैन साधु पथ-भ्रष्ट हो रहे थे। मर्यादा से अधिक वस्त्र रखते थे। अधिक सरस आहार लेते थे तथा शिष्य बनाने के लिए आतुर रहते। उस समय राजनगर की अनुयाई शावकों में रघुनाथ जी के आचार-विचार संबंधी मान्यताओं को लेकर काफी अंतर्द्वंद था।
☞ रघुनाथ जी ने अपने प्रमुख शिष्य भिखणजी [भिक्षु] के नेतृत्व में साधुओं का एक दल 1758 ईस्वी [विक्रम संवत 1815] में राजनगर के अनुयायियों को समझाने व अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने भेजा। राजनगर आकर शुरू में तो भिखणजी ने उन्हें खूब समझाया किंतु शास्त्र मर्मज्ञ चतरोजी पोरवाल एंव बछराज ओसवाल के साथ हुई चर्चाओं के बाद भी भिखणजी स्वय मानसिक संघर्ष में लीन हो गए।
☞ 1758 ई. का चातुर्मास उनके इसी संघर्ष का काल रहा। उन्होंने आगमौं [जैन शास्त्रों] का गहराई से मंथन किया। शास्त्र सम्मत मार्ग से भटकने की भूल उन्हें अनुभव हुई।
☞ चातुर्मास समाप्त होने पर वह अपने गुरु रघुनाथ जी के पास आए। उन्हें वस्तुस्थिति से परिचित कराया किंतु आचार्य रघुनाथ जी ने उसे स्वीकार नहीं किया।
☞ अंततः विवश होकर भिखणजी ने अपने गुरु से संबंध तोड़ लिए। 1706 ई. में जोधपुर के बाजार मैं एक खाली दुकान में भिक्षु के मत को मानने वाले 13 शावक धार्मिक क्रिया कर रहे थे। उसी समय भिक्षु के साथ भी 13 साधु ही थे। उस दौरान इधर से जोधपुर के दीवान फतेह मल जी गुजर रहे थे। उनसे हुई चर्चा में 13 शावक व 13 साधु के योग को देखकर उन्हें 'तेरापंथी' कहकर पुकारा गया। इस पर विरोधी लोगों ने भिखणजी जी अनुयायियों को लोगों ने तेरापंथी कहकर चिढ़ाना आरंभ किया किंतु बिखर जी ने इस नामकरण को तत्काल स्वीकार कर लिया और कहा "हे प्रभु ! यह तेरापंथ है इसमें मेरा कुछ भी नहीं। हम सब निर्भ्रांत होकर इस पथ पर चलने वाले हैं।
अतः हम तेरापंथी ही हैं। आपने इसका संख्या पर अर्थ करते हुए भी कहा कि पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इन 13 नियमों की पूर्ण रूप से श्रद्धा का पालना करने वाले व्यक्ति ही तेरापंथी हैं।
इस प्रकार शिथिलाचार एंव रूढ़ियों के विरुद्ध भिखणजी द्वारा किया धर्म घोष "तेरापंथ" धर्म संप्रदाय के रूप में विख्यात हुआ।
लगभग 25 वर्ष की आयु में मगसिर कृष्णा-12 विक्रम संवत 1808 में वह जैन अचार्य रघुनाथ जी के संप्रदाय में मुनि हुए। लगभग 8 वर्ष तक वह अपने गुरु के सानिध्य में रहे। उस समय आचार की शिथिलता का बोलबाला था।
☞ अनेक जैन साधु पथ-भ्रष्ट हो रहे थे। मर्यादा से अधिक वस्त्र रखते थे। अधिक सरस आहार लेते थे तथा शिष्य बनाने के लिए आतुर रहते। उस समय राजनगर की अनुयाई शावकों में रघुनाथ जी के आचार-विचार संबंधी मान्यताओं को लेकर काफी अंतर्द्वंद था।
☞ रघुनाथ जी ने अपने प्रमुख शिष्य भिखणजी [भिक्षु] के नेतृत्व में साधुओं का एक दल 1758 ईस्वी [विक्रम संवत 1815] में राजनगर के अनुयायियों को समझाने व अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने भेजा। राजनगर आकर शुरू में तो भिखणजी ने उन्हें खूब समझाया किंतु शास्त्र मर्मज्ञ चतरोजी पोरवाल एंव बछराज ओसवाल के साथ हुई चर्चाओं के बाद भी भिखणजी स्वय मानसिक संघर्ष में लीन हो गए।
☞ 1758 ई. का चातुर्मास उनके इसी संघर्ष का काल रहा। उन्होंने आगमौं [जैन शास्त्रों] का गहराई से मंथन किया। शास्त्र सम्मत मार्ग से भटकने की भूल उन्हें अनुभव हुई।
☞ चातुर्मास समाप्त होने पर वह अपने गुरु रघुनाथ जी के पास आए। उन्हें वस्तुस्थिति से परिचित कराया किंतु आचार्य रघुनाथ जी ने उसे स्वीकार नहीं किया।
☞ अंततः विवश होकर भिखणजी ने अपने गुरु से संबंध तोड़ लिए। 1706 ई. में जोधपुर के बाजार मैं एक खाली दुकान में भिक्षु के मत को मानने वाले 13 शावक धार्मिक क्रिया कर रहे थे। उसी समय भिक्षु के साथ भी 13 साधु ही थे। उस दौरान इधर से जोधपुर के दीवान फतेह मल जी गुजर रहे थे। उनसे हुई चर्चा में 13 शावक व 13 साधु के योग को देखकर उन्हें 'तेरापंथी' कहकर पुकारा गया। इस पर विरोधी लोगों ने भिखणजी जी अनुयायियों को लोगों ने तेरापंथी कहकर चिढ़ाना आरंभ किया किंतु बिखर जी ने इस नामकरण को तत्काल स्वीकार कर लिया और कहा "हे प्रभु ! यह तेरापंथ है इसमें मेरा कुछ भी नहीं। हम सब निर्भ्रांत होकर इस पथ पर चलने वाले हैं।
अतः हम तेरापंथी ही हैं। आपने इसका संख्या पर अर्थ करते हुए भी कहा कि पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इन 13 नियमों की पूर्ण रूप से श्रद्धा का पालना करने वाले व्यक्ति ही तेरापंथी हैं।
इस प्रकार शिथिलाचार एंव रूढ़ियों के विरुद्ध भिखणजी द्वारा किया धर्म घोष "तेरापंथ" धर्म संप्रदाय के रूप में विख्यात हुआ।
☞ आचार्य रघुनाथ जी से अलग होने के बाद भी खान जी का प्रथम चातुर्मास केलवा में हुआ यहां पर उनके विरोधियों की संख्या बहुत अधिक थी परंतु बिखर जी इससे भयभीत नहीं हुए अपितु विरोध को विनोद स्वरूप समझकर अपनी आत्मा का पाना ही उनका दिया था स्वामी जी के कठोर संयम अधिक धैर्य के समक्ष विरोधी नतमस्तक हो गए स्वामी जी ने आषाढ़ी पूर्णिमा को तेरापंथ धर्म संघ की स्थापना भी केवला में ही की संख्या यह प्रारंभिक दिन बड़े कठोर परीक्षण के थे कदम कदम पर विरोध प्रताड़ना वह विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा था परंतु चारे बिच्छू बिखर जी ने तो आत्म कल्याण के लिए घर छोड़ा था
☞ अतः उन्होंने विरोध का उत्तर कठिन साधना व जिन मासिक धर्म पर चल कर दिया था उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा आचार्य भिक्षु ने जैन धर्म की सैद्धांतिक बातों को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए महावीर स्वामी की भांति जन भाषा का प्रयोग कर उन्हें सामान्य व्यक्ति तक पहुंचाने का भरसक प्रयास किया
राजस्थानी भाषा में बिच्छू ने गद्य एवं पद्य में विपुल साहित्य लिखा
☞ बिखर जी भिक्षु ने तेरापंथ के आचार्य के रूप में केलवा राज नगर पाली पीपाड़ नाथद्वारा आमेट सिरियारी कंटालिया खेरवा बगड़ी बल्लू सवाई माधोपुर पद्दू पुर सोजत बनेड़ा आदि कई स्थानों पर चातुर्मास के मध्य अपने उपदेशों से जनमानस को काफी प्रभावित करते हुए अपने मत का प्रचार प्रसार किया था आचार्य भिक्षु की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने विरोधियों की तनिक भी परवाह न करते हुए अनेक विरोध उनके विरोध को भी सदैव अपने पक्ष में सकारात्मक रूप में लिया गुरुवार 2 सितंबर 18 से 3 ईसवी विक्रम संवत 1807 भाद्रपद शुक्ला 13 को चारे भिक्षु का सिरियारी पाली में स्वर्गवास स्वर्गवास हुआ स्वर्गारोहण हुआ
आचार्य भिक्षु आचार विचार की श्वेता के प्रबल पक्षधर थे उनकी मान्यता थी कि महावीर के उपदेश सर्व कालीन हैं और उनके अनुसार चलना आज भी कठिन नहीं है धार्मिक सहिष्णुता वह सांप्रदायिक सद्भाव के वह प्रबल हिमायती थे।
☞ इन्होंने अपने धर्म संघ के साधुओं को एक ही अचार्य की मर्यादा व अनुशासन पर चलने पर बल दिया तथा अन्य साधुओं को अपने शिष्य नहीं बनाने का भी निर्देश दिया दीक्षा लेकर साधु बनने वाले के लिए भी उसके परिवार की स्वीकृति लेने को अनिवार्य कर दिया साधुओं के लिए निर्मित भवन में ठहरने व रहने कि उन्होंने मना ही कर दी जगह साधुओं के लिए यह यह भी जरूरी कर दिया कि वह एक ही घर से नियमित भोजन ग्रहण न करें और साधुओं के लिए बने भोजन को भी स्वीकार नहीं करें साधुओं को नियमों से ज्यादा वस्त्र पात्र आदि रखने था उन्हें अपने पास रुपए पैसे रखने का भी पाबंदी लगा दी अपने अनुयाई शासकों को भी महावीर के उपदेशों को कड़ाई से अपनाने का निर्देश दिया
आचार्य भिक्षु ने एक व्यवस्थित सू स्थापित एवं नियम आधारित तेरापंथ संप्रदाय की स्थापना की उन्होंने सब अनुशासन पर प्रबंध दिया उन्होंने एक आचार्य एक शिष्य एक विचार किस दांत का प्रतिपादन किया उन्होंने बताया कि धर्म की बात एक साधारण व्यक्ति के समझ में आनी चाहिए ताकि वह उसका पालन करते हुए मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ सकें बिच्छू के इस सुधार कार्यक्रम का भविष्य में काफी प्रचार-प्रसार हुआ और लोकप्रियता भी बड़ी।
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